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उत्तराखण्ड में रोजगार की मारामारी: बीटेक-पीएचडी और बीएड डिग्रीधारी बने आंगनबाड़ी सहायिका

उत्तराखंड में रोजगार की तस्वीर दिन पर दिन गंभीर होती जा रही है. ताज़ा उदाहरण हल्द्वानी से सामने आया है. जहां बीटेक, एमएससी, बीएड और यहां तक कि पीएचडी डिग्रीधारी युवा महज ₹8000 मानदेय की नौकरी के लिए आंगनबाड़ी सहायिका बन रहे हैं. राज्य की शिक्षा प्रणाली से निकले ये होनहार छात्र जिस पद के लिए आवेदन कर रहे हैं, उसकी न्यूनतम योग्यता महज इंटरमीडिएट थी.

डिग्री कंधे पर, लेकिन नौकरी नहीं!

नैनीताल जिले में  लगभग 300 नव नियुक्त आंगनबाड़ी वर्कर और सहायिकाओं को जब महिला एवं बाल विकास मंत्री रेखा आर्या ने नियुक्ति पत्र सौंपे, तो ये अवसर एक सरकारी खुशी की तस्वीर से ज्यादा, बेरोजगारी के गहरे संकट की कहानी कहता नजर आया.

“मैंने बॉटनी से एमएससी की है. अब आंगनबाड़ी सहायिका बनी हूं. खुशी तो है, पर सोचने को मजबूर भी करती है ये स्थिति.”
उमा  नवनियुक्त आंगनबाड़ी सहायिका

“कंप्यूटर साइंस से एमएससी करने के बाद सेवाभाव से आवेदन किया था, लेकिन मन में सवाल भी उठते हैं कि क्या यही हमारे भविष्य की दिशा है?”
पूनम  नवनियुक्त आंगनबाड़ी सहायिका

बड़ा सवाल: क्या राज्य सरकार युवाओं को उनकी योग्यता के अनुसार उचित  रोजगार देने  की जिम्मेदारी निभा पा रही  है ?…

उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्य में उच्च शिक्षा की व्यवस्था भले ही विस्तृत होती जा रही हो, लेकिन उसके अनुपात में सरकारी और निजी क्षेत्र में रोजगार के अवसर बेहद सीमित हैं. तकनीकी शिक्षा पाने के बावजूद जब युवाओं को एक सहायिका पद की नौकरी के लिए मोहताज होना पड़े, तो सवाल उठते हैं:

  • क्या सरकार ने उच्च शिक्षित युवाओं के लिए योजनाबद्ध रोजगार नीति बनाई है?
  • क्या राज्य सरकारों के लिए रोजगारअब एक राजनीतिक नारा भर बन गया है?
  • क्या डिजिटल युग में ‘डिजिटलीकरण’ के नाम पर असल मुद्दों से ध्यान भटकाया जा रहा है?

तकनीकी और उच्च शिक्षा प्राप्त युवा आंगनबाड़ी सहायिका क्यों बनने को मजबूर

मंत्री रेखा आर्या ने अपने संबोधन में कहा कि अब आंगनबाड़ी केंद्रों को डिजिटल किया जा रहा है और योग्य महिलाएं इसमें बेहतर योगदान देंगी. पर असली सवाल यह है कि तकनीकी और उच्च शिक्षा प्राप्त युवा आंगनबाड़ी सहायिका क्यों बनने को मजबूर हैं? क्या यह उनके कौशल और डिग्री की ‘बर्बादी’ नहीं है?


सवाल — युवाओं को नौकरी नहीं तो फिर क्या है “रोजगार का अधिकार”?

संविधान में दर्ज ‘रोजगार का अधिकार’ क्या केवल कागजों तक सीमित रह गया है? जब योग्य युवा राज्य की नौकरियों के लिए दर-दर भटक रहे हों, और उन्हें महज सम्मानजनक कार्य नहीं, बल्कि किसी भी प्रकार की नौकरी करनी पड़े, तो सरकार की प्राथमिकता पर सवाल उठाना ज़रूरी हो जाता है.

उत्तराखंड जैसे राज्य में, जहां पलायन, स्वास्थ्य और शिक्षा पहले से ही चुनौतियों के घेरे में हैं, बेरोजगारी का यह नया रूप डिग्रीधारी सहायिका” कहीं समाज और नीति दोनों की विफलता का दर्पण तो नहीं?