सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक महत्वपूर्ण फैसले में उस याचिका को सिरे से खारिज कर दिया, जिसमें एक महिला ने दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले पर मालिकाना हक जताते हुए उसे वापस लौटाने की मांग की थी। याचिकाकर्ता, रजिया सुल्ताना बेगम, ने दावा किया था कि वह अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के पड़पोते मिर्जा बेदार बख्त की पत्नी हैं और इस नाते वह किले की कानूनी उत्तराधिकारी हैं। उन्होंने 1857 से लेकर अब तक किले पर कथित ‘अवैध कब्जे’ के लिए मुआवजे की भी मांग की थी।
मुख्य न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने इस याचिका को न केवल गलत और निराधार बताया, बल्कि याचिकाकर्ता के वकील को इसे वापस लेने की अनुमति देने से भी इनकार कर दिया। CJI खन्ना ने टिप्पणी करते हुए कहा, “आप लाल किले तक ही क्यों रुकें? आगरा के किला, ताजमहल, फतेहपुर सीकरी और अन्य किलों पर भी दावा क्यों नहीं किया?” कोर्ट की इस टिप्पणी से मामले की कमजोर कानूनी आधार और याचिकाकर्ता के दावों की अविश्वसनीयता स्पष्ट रूप से झलकती है।
यह पहली बार नहीं था जब रजिया सुल्ताना बेगम ने लाल किले पर अपना दावा पेश किया था। इससे पहले, 13 दिसंबर, 2024 को दिल्ली उच्च न्यायालय भी उनकी इसी याचिका को खारिज कर चुका था। सुल्ताना बेगम ने उच्च न्यायालय के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, लेकिन वहां भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी।
कौन हैं रजिया सुल्ताना बेगम?
रजिया सुल्ताना बेगम का दावा है कि वह मुगल सल्तनत के अंतिम बादशाह बहादुर शाह जफर के पड़पोते मिर्जा बेदार बख्त की पत्नी हैं। उनके अनुसार, उनका विवाह 15 अगस्त, 1965 को हुआ था, जब वह महज 12 वर्ष की थीं। मूल रूप से लखनऊ की रहने वाली सुल्ताना ने अपना बचपन कोलकाता में अपने नाना के घर पर बिताया। वर्तमान में, वह हावड़ा के शिवपुरी इलाके की एक बस्ती में अत्यंत साधारण परिस्थितियों में जीवन यापन कर रही हैं।
अपनी वर्तमान स्थिति और अपने कथित शाही अतीत के बीच विसंगति को व्यक्त करते हुए, सुल्ताना बेगम ने कहा, “मैं मुगल खानदान की बहू हूं, लेकिन लाल किले में 50 रुपए का टिकट लेकर जाती हूं। हुमायूं के मकबरे में 40 रुपए देकर जाती हूं। जबकि वो मेरे खानदान की रियासत है।” उन्होंने आगे सवाल किया कि मुगलों ने क्या लूटा और कहां ले गए, यह पूछते हुए कि अगर कोई एक भी ऐसी चीज बता दे तो वह अपना सिर झुका लेंगी। उन्होंने यह भी कहा कि कब्रें खुदें या रहें, यह सरकार की जिम्मेदारी है।
कानूनी लड़ाई और पिछली याचिकाएं
यह ध्यान देने योग्य है कि दिसंबर 2021 में भी दिल्ली उच्च न्यायालय ने लाल किले पर कब्जे की मांग वाली सुल्ताना बेगम की एक पिछली याचिका को खारिज कर दिया था। उस समय, अदालत ने याचिका दायर करने में अत्यधिक देरी (150 वर्षों से अधिक) का हवाला दिया था। अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा था कि इतने लंबे समय के बाद इस तरह के दावों पर विचार नहीं किया जा सकता।
हालांकि, सुल्ताना बेगम ने हार नहीं मानी और दिसंबर 2024 में उन्होंने एक बार फिर उसी मुद्दे पर दूसरी याचिका दायर की। इस याचिका को कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश विभु बाखरू और न्यायमूर्ति तुषार राव गेडेला की पीठ ने भी खारिज कर दिया था। अदालत ने पिछली अस्वीकृति के आधार पर और नए कोई ठोस सबूत पेश न किए जाने के कारण इस याचिका को भी अस्वीकार्य माना।
अपनी याचिका में, सुल्ताना बेगम ने तर्क दिया था कि वह लाल किले की असली मालिक हैं क्योंकि उन्हें यह संपत्ति अपने पूर्वज बहादुर शाह जफर द्वितीय से विरासत में मिली थी। उन्होंने यह भी आरोप लगाया था कि भारत सरकार ऐसी संपत्ति पर अवैध रूप से कब्जा कर रही है।
इसके अतिरिक्त, सुल्ताना बेगम ने अपनी याचिका में एक दिलचस्प दावा किया था कि 1960 में जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने मिर्जा मुहम्मद बेदार बख्त को बहादुर शाह जफर का उत्तराधिकारी माना था और उन्हें राजनीतिक पेंशन दी थी। उन्होंने इस तथ्य को अपने दावे के समर्थन में एक महत्वपूर्ण बिंदु के रूप में प्रस्तुत किया था। हालांकि, अदालतें उनके इस तर्क से सहमत नहीं हुईं और इसे उनके मालिकाना हक को स्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं माना।
सुप्रीम कोर्ट का सख्त रुख
सोमवार को सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने इस मामले की सुनवाई करते हुए याचिकाकर्ता के दावों को पूरी तरह से खारिज कर दिया। CJI संजीव खन्ना ने स्पष्ट रूप से कहा कि याचिका में कोई कानूनी आधार नहीं है और यह पूरी तरह से निराधार है। उन्होंने याचिकाकर्ता के वकील को इसे वापस लेने की अनुमति देने से भी इनकार कर दिया, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि अदालत इस मामले को आगे नहीं बढ़ाना चाहती।
CJI की यह टिप्पणी कि याचिकाकर्ता को आगरा के किला, ताजमहल और फतेहपुर सीकरी जैसे अन्य ऐतिहासिक स्मारकों पर भी दावा क्यों नहीं करना चाहिए, प्रतीकात्मक रूप से इस तरह के ऐतिहासिक दावों की व्यापक और संभावित रूप से अंतहीन प्रकृति को दर्शाती है, यदि उन्हें कानूनी मान्यता दी जाती है। यह टिप्पणी ऐतिहासिक तथ्यों और वर्तमान कानूनी व्यवस्था के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर को भी उजागर करती है।
ऐतिहासिक संदर्भ और कानूनी जटिलताएं
यह मामला भारत के समृद्ध और जटिल इतिहास और वर्तमान कानूनी ढांचे के बीच एक दिलचस्प टकराव को दर्शाता है। मुगल बादशाहों ने सदियों तक भारत पर शासन किया और उन्होंने कई शानदार स्मारकों का निर्माण कराया, जिनमें लाल किला भी शामिल है। हालांकि, 1857 के सिपाही विद्रोह के बाद, ब्रिटिश सरकार ने अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को निर्वासित कर दिया और मुगल साम्राज्य का अंत हो गया। इसके बाद, इन ऐतिहासिक स्मारकों का नियंत्रण ब्रिटिश सरकार के पास चला गया और स्वतंत्रता के बाद यह भारत सरकार के अधीन आ गया।
भारतीय कानून विरासत और संपत्ति के अधिकारों को मान्यता देता है, लेकिन ऐतिहासिक स्मारकों और राष्ट्रीय महत्व की संपत्तियों के मामले में, सरकार का अधिकार सर्वोपरि माना जाता है। इस तरह की संपत्तियों का संरक्षण और रखरखाव राष्ट्र की सामूहिक जिम्मेदारी होती है।
रजिया सुल्ताना बेगम का दावा ऐतिहासिक विरासत और व्यक्तिगत संपत्ति के अधिकारों के बीच एक जटिल प्रश्न उठाता है। हालांकि, अदालतों ने बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि ऐतिहासिक घटनाओं और समय बीतने के साथ, संपत्ति के अधिकारों में परिवर्तन होते हैं और वर्तमान कानूनी ढांचे के तहत, सरकार का नियंत्रण इन स्मारकों पर वैध है।