उत्तराखंड , चमोली जिले के पोखरी ब्लॉक के पोगठा गांव में मानवाधिकारों की एक चिंताजनक तस्वीर सामने आई है. यहां एक महिला को सिर्फ इस वजह से सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा क्योंकि उसके बेटे पर एक हत्या का आरोप है. आरोपी बेटा न्यायिक हिरासत में है और मामला अदालत में विचाराधीन है, लेकिन गांववालों ने बिना किसी कानूनी निर्णय के पूरे परिवार को सामाजिक रूप से अलग-थलग कर दिया.
क्या है मामला
गांव की निवासी कमला देवी पत्नी हरीश लाल ने प्रशासन को दी गई शिकायत में बताया कि 11 नवम्बर 2024 को उत्तम लाल पुत्र जसपाल की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई थी. इस मामले में उनके बेटे हिमांशु पर हत्या का आरोप है, जो वर्तमान में जेल में बंद है. मामला अभी न्यायालय में लंबित है.
कमला देवी का कहना है कि इस घटना के बाद उनके मोहल्ले के लोगों ने एक बैठक करके उनके परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर दिया . यहाँ तक की प्रस्ताव पास कर ग्राम पंचायत को सौंपा गया . इस बहिष्कार के तहत उन्हें दुकानों से सामान खरीदने, सार्वजनिक स्थलों पर जाने और वाहनों में बैठने तक से रोका जा रहा है.
SDM ने लिया संज्ञान, दिए संवैधानिक निर्देश
कमला देवी द्वारा की गई शिकायत के बाद एसडीएम पोखरी ने मामले को गंभीरता से लिया और मंगलवार को तहसील सभागार में ग्रामीणों के साथ बैठक बुलाई. बैठक में उन्होंने स्पष्ट कहा:
“हम एक लोकतांत्रिक देश में रहते हैं. भारत के संविधान ने हर नागरिक को समानता, स्वतंत्रता और जीवन का अधिकार दिया है. किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह किसी का सामाजिक बहिष्कार करे. साथ ही अभी न्यायालय में भी इस मामले पर कोई दोष सिद्ध नहीं हुआ है .”
एसडीएम ने ग्रामीणों को निर्देश दिए कि वे कमला देवी के परिवार का बहिष्कार तुरंत समाप्त करें और उन्हें सम्मानपूर्वक गांव में जीने दें. बैठक में ग्रामीणों ने सकारात्मक रवैया दिखाया और सहमति जताई कि बहिष्कार को औपचारिक रूप से समाप्त किया जाएगा.
तहसीलदार की अध्यक्षता में होगी अंतिम बैठक
बैठक में यह भी निर्णय लिया गया कि गांव में जल्द ही एक और बैठक तहसीलदार की अध्यक्षता में आयोजित की जाएगी. इस बैठक में पीड़ित परिवार के साथ समस्त ग्रामवासी मौजूद रहेंगे और सार्वजनिक रूप से बहिष्कार वापस लिया जाएगा.
संविधान का संकल्प: ‘न्याय सबके लिए‘
यह घटना सिर्फ एक गांव की नहीं, बल्कि पूरे समाज को आईना दिखाती है कि आरोप और अपराध में फर्क होता है, और जब तक न्यायालय दोष सिद्ध नहीं करता, तब तक किसी को सजा नहीं दी जा सकती — न सामाजिक तौर पर, न कानूनी तौर पर. संविधान का यही संदेश है कि हर नागरिक को न्याय और सम्मानपूर्वक जीवन जीने का हक है.