खासतौर पर दक्षिण भारत के राज्यों – कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश से साल, सागौन और शीशम की लकड़ियों की मांग में जबरदस्त उछाल देखा जा रहा है. यह न केवल उत्तराखंड के वन निगम की आय का मुख्य स्रोत बन चुका है, बल्कि इससे पहाड़ी क्षेत्रों के आर्थिक विकास की नई राह भी खुल सकती है.
हल्द्वानी स्थित वन निगम के आठ डिपो इन दिनों उच्च गुणवत्ता की साल, शीशम और सागौन की लकड़ियों से भरे हुए हैं. ये लकड़ियाँ पर्वतीय अंचल की खासियत मानी जाती हैं, जो मजबूत, टिकाऊ और फर्नीचर निर्माण के लिए उपयुक्त होती हैं. यही कारण है कि देशभर के बड़े फर्नीचर निर्माता और व्यापारिक समूह अब उत्तराखंड की ओर रुख कर रहे हैं.
वन निगम के प्रभागीय लॉगिंग अधिकारी उपेंद्र बर्तवाल के अनुसार, “इमारती लकड़ियों की बिक्री के लिए ई-टेंडर प्रक्रिया शुरू होने से पारदर्शिता बढ़ी है और खरीददारों की संख्या में इजाफा हुआ है. बाहरी राज्यों से खरीदार ऑनलाइन प्रक्रिया के माध्यम से बड़ी मात्रा में खरीदारी कर रहे हैं.
“उत्तराखंड की बेशकीमती लकड़िया लकड़ियों का इतिहास
उत्तराखंड की घने जंगलों में जब सुबह की पहली किरणें गिरती है तो हरियाली के बीच से झांकती लकड़ियों की महक एक अनोखा एहसास कराती है. ये केवल लकड़ियाँ नहीं हैं—ये उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत, आर्थिक पूंजी और पर्यावरणीय धरोहर का प्रतीक हैं. खास तौर पर साल, सागौन, शीशम और चंदन की लकड़ियाँ—जिनकी चमक और मजबूती ने सदियों से इस पर्वतीय राज्य को खास बना रखा है.
प्राचीन काल से वर्तमान तक: एक लंबा सफर
उत्तराखंड के पुराने गाँवों में आज भी लकड़ी से बने घरों की खूबसूरती देखी जा सकती है. वहाँ की दीवारों में शीशम की नक्काशी और छतों में साल की मजबूत पट्टियाँ बीते समय की कहानियाँ सुनाती हैं.
पुरातत्व और इतिहास से जुड़े दस्तावेज़ों में उत्तराखंड की बेशकीमती लकड़ियों का उल्लेख मिलता है—जिनका उपयोग केवल घरेलू निर्माण तक सीमित नहीं था, बल्कि मंदिरों, शाही महलों और पूजा सामग्री तक में होता था.
ब्रिटिश दौर की कहानी: जब लकड़ी बना अस्त्र का आधार
ब्रिटिश शासन के दौरान उत्तराखंड की लकड़ियों का साम्राज्य विस्तार और सैन्य तैयारियों में भी उपयोग हुआ. विशेष रूप से कुमाऊँ मंडल के जौलाशाल जंगल में पाई जाने वाली साल की लकड़ी को हथियारों की बट बनाने के लिए अंग्रेजों ने चुना. इतनी बड़ी मात्रा में साल की कटाई हुई कि इसे ढोने के लिए एक विशेष रेल इंजन की व्यवस्था की गई थी.
यह वह दौर था जब उत्तराखंड के जंगलों की कीमत दिल्ली और लंदन तक महसूस की जा रही थी.
वन विभाग की भूमिका: संरक्षण की चुनौतियाँ
आज उत्तराखंड वन विभाग इन अमूल्य संसाधनों के संरक्षण के लिए प्रयासरत है. अवैध कटाई, तस्करी और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं के बीच विभाग ने सघन निगरानी, वन नीति और टिकाऊ उपयोग पर बल देना शुरू किया है. खासतौर पर चंदन की लकड़ी—जो अपनी सुगंध और धार्मिक महत्व के कारण अत्यंत मूल्यवान है—के संरक्षण के लिए विशेष सुरक्षा प्रबंध किए गए हैं.
चंदन की लकड़ी: सौंदर्य और श्रद्धा का संगम
उत्तराखंड में मिलने वाली सफेद चंदन की लकड़ी का उपयोग धार्मिक अनुष्ठानों, हवन सामग्री और इत्र निर्माण में किया जाता है. इसकी भीनी खुशबू वर्षों तक बनी रहती है, और यही इसे विशेष बनाती है. वन विभाग ने इसके लिए चंदन रोपण परियोजनाओं की शुरुआत भी की है.
आर्थिक और पारिस्थितिक महत्व
इन लकड़ियों का महत्व केवल उनके सौंदर्य या उपयोगिता तक सीमित नहीं है. वे स्थानीय अर्थव्यवस्था, ग्रामीण रोजगार और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं.
- साल की लकड़ी: छत, फर्श और खंभों में उपयोग की जाती है.
- सागौन: सुंदरता और मजबूती के कारण महँगे फर्नीचर में इसका प्रयोग होता है.
- शीशम: नक्काशीदार फर्नीचर, दरवाज़े, खिड़कियों और म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स के लिए मशहूर है.
- चंदन: धार्मिक, औषधीय और सौंदर्य प्रसाधनों के क्षेत्र में बेशकीमती.
दक्षिण भारत तक उत्तराखंड की पहचान
उत्तराखंड की इमारती लकड़ियाँ केवल स्थानीय बाजारों तक सीमित नहीं हैं. इनकी मांग दक्षिण भारत के राज्यों तक है. वहाँ के फर्नीचर निर्माताओं को उत्तराखंड की लकड़ियों की मजबूती और गुणवत्ता पर पूरा भरोसा है.
उत्तराखंड के जंगल केवल हरियाली नहीं, बल्कि एक इतिहास, संस्कृति और भविष्य की नींव हैं. इन बेशकीमती लकड़ियों का संरक्षण न केवल वन विभाग की जिम्मेदारी है, बल्कि हर नागरिक का कर्तव्य भी है.
क्योंकि जब हम लकड़ी को बचाते हैं, तब हम केवल एक पेड़ नहीं, बल्कि एक पूरी सभ्यता को सुरक्षित रखते हैं.
प्राकृतिक विरासत से राजस्व तक
उत्तराखंड का दो-तिहाई से अधिक क्षेत्र वन से आच्छादित है. यहां की जलवायु, मिट्टी और ऊंचाई के कारण यहां विशेष प्रकार की इमारती लकड़ियां उत्पन्न होती हैं, जो देश के अन्य भागों में आसानी से नहीं मिलतीं. ब्रिटिश काल में इन लकड़ियों का उपयोग रेलवे स्लीपर से लेकर भवन निर्माण तक में होता था. आज आधुनिक फर्नीचर से लेकर वास्तुशिल्प निर्माण तक, इन लकड़ियों की मांग तेजी से बढ़ रही है. एक अनुमान के अनुसार 2023 -24 के वित्तीय वर्ष में वन निगम को 191 करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ था, जबकि 2024 – 25 में यह बढ़कर 201 करोड़ रुपये पहुंच गया है. यह आंकड़ा साफ दर्शाता है कि उत्तराखंड की इमारती लकड़ियों की मांग में लगातार बढ़ोतरी हो रही है.
हल्द्वानी बना वनों का कारोबारी केंद्र
हल्द्वानी का नाम अब न केवल तराई के प्रवेशद्वार के रूप में लिया जा रहा है, बल्कि यह प्रदेश के सबसे बड़े इमारती लकड़ी कारोबारी केंद्र के रूप में उभर रहा है. यहां से लकड़ी को प्रोसेस कर देश के विभिन्न राज्यों में भेजा जा रहा है. खास बात यह है कि यह संपूर्ण प्रक्रिया वन विभाग की निगरानी में पारदर्शिता के साथ संचालित हो रही है.
वन निगम अधिकारियों का मानना है कि यदि इस मांग को दीर्घकालिक रणनीति से जोड़ा जाए, तो प्रदेश को और अधिक आर्थिक लाभ मिल सकता है. इससे न केवल सरकार की आय में वृद्धि होगी, बल्कि स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर भी प्राप्त होंगे.
पर्यावरण संरक्षण भी जरूरी
हालांकि बढ़ती मांग के बीच पर्यावरणविदों की चिंता भी जायज है. यदि जंगलों से लगातार लकड़ी काटी जाती रही, तो इससे जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र पर असर पड़ सकता है. ऐसे में वन निगम को चाहिए कि वह वृक्षारोपण और सतत वन प्रबंधन की दिशा में भी ठोस कदम उठाए. साथ ही जंगलों को आग से बचाना सबसे ज्यादा जरुरी है. हम यदि जंगलों को आग से बचा लेते हैं तो हमारा पर्यावरण का संतुलन और आय दोनों ही बढेंगे. उत्तराखंड की इमारती लकड़ियों की मांग ने यह साबित कर दिया है कि प्राकृतिक संसाधनों का सतत उपयोग राज्य को आर्थिक रूप से सशक्त बना सकता है. अब जरूरत है कि इस अवसर को एक स्थायी आर्थिक मॉडल में बदला जाए, जिसमें विकास और दोनों पर्यावरण का संतुलन बना रहे