उत्तराखंड एक बार फिर आस्था और संस्कृति के अनूठे संगम का गवाह बनने जा रहा है। 7 मई से शुरू हो रही ‘विश्वनाथ मां जगदीशिला डोली यात्रा’ न केवल धार्मिक भावना का प्रतीक बनेगी, बल्कि इससे जुड़ा संदेश राज्य की सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय चेतना को भी नई दिशा देगा। यह यात्रा पूर्व शिक्षा मंत्री मंत्री प्रसाद नैथानी के नेतृत्व में हरिद्वार से शुरू होकर 30 दिनों में विशौन पर्वत (टिहरी) पहुंचेगी।
यात्रा का उद्देश्य सिर्फ धार्मिक नहीं, सामाजिक भी है
नैथानी ने बताया कि पिछले 25 वर्षों से आयोजित हो रही ये यात्रा इस बार कई नए संकल्पों और उद्देश्यों के साथ निकाली जा रही है। जिसमें देश और दुनिया में शांति और सौहार्द का संदेश फैलाना। देवभूमि उत्तराखंड के शक्तिपीठों और मंदिरों को चारधाम के समकक्ष प्रतिष्ठित करना।
संस्कृत के प्रचार-प्रसार के लिए नए संस्कृत विद्यालय खोलने की पहल। हिमालय आरती केंद्र स्थापित करने की योजना ताकि हिमालय की सुरक्षा का भाव जागृत हो सके।बंजर खेतों को फिर से आबाद करना और पलायन पर रोक लगाना। देवसंस्कृति और पर्यावरण संरक्षण को जनआंदोलन का रूप देना। नैथानी का मानना है कि उत्तराखंड के पर्वतीय अंचलों से जब लोग हिमालय को नमन करेंगे, तब वह भी हमारी रक्षा करेगा। यही सोच इस यात्रा के केंद्र में है।
आठ संकल्प’ और ‘जन भागीदारी
इस बार यात्रा को ‘आठ प्रमुख बिंदुओं’ पर केंद्रित किया गया है। इसमें धार्मिक चेतना के साथ-साथ युवाओं को संस्कृति और परंपरा से जोड़ने पर खास ध्यान रहेगा। पूरे प्रदेश में यात्रा के दौरान जनसभाएं, सांस्कृतिक आयोजन और पर्यावरणीय जागरूकता अभियान चलाए जाएंगे।
श्रद्धालुओं पर पुष्प वर्षा और विशाल भंडारे
इस ऐतिहासिक यात्रा से ठीक पहले 27 अप्रैल को मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी सीएम आवास से यात्रा रथ को हरी झंडी दिखाकर रवाना करेंगे।
भाजपा युवा नेता हिमांशु चमोली ने बताया कि 28 अप्रैल को डोली बाबा केदारनाथ के लिए गुप्तकाशी से रवाना होगी। यात्रा के दौरान ऊखीमठ और अन्य पड़ावों पर विशेष भंडारे लगाए जाएंगे।
60-70 हजार श्रद्धालुओं के लिए भव्य भंडारा आयोजित किया जाएगा
विशेष बात ये हैं कि 2 मई को बाबा केदारनाथ के कपाट खुलने के अवसर पर 60-70 हजार श्रद्धालुओं के लिए भव्य भंडारा आयोजित किया जाएगा और हेलीकॉप्टर से पुष्प वर्षा की जाएगी। यह आयोजन श्रद्धालुओं के लिए एक अविस्मरणीय अनुभव साबित होगा। यह यात्रा ना केवल एक धार्मिक परंपरा है, बल्कि एक वैचारिक आंदोलन भी है, जो उत्तराखंड की पहचान, संस्कृति और भविष्य को सहेजने का संदेश देती है।